Sunday, April 20, 2014

चलो आज फिर वह तराना बनाएं

चलो आज फिर वह तराना बनाएँ
वो गुज़रा हुआ इक ज़माना बनाएँ

वो झुरमुट की छाँव वो दरिया का पानी
बहकती हुई दो जवाँ ज़िन्दगानी
ज़मीं आसमाँ का अचानक वो मिलना
वो मिलकर सँभलना सँभलकर फिसलना
जो गाया कभी था वो गाना बनाएँ
चलो आज फिर वह तराना बनाएँ

वो पच्छिम के बादल का उठना अचानक
ज़मीं का सिहरना सिमटना अचानक
अचानक ही बादल का जमकर बरसना
नये अनुभवों से ज़मीं का सरसना
मधुरस्मरण का ख़जाना बनाएँ
चलो आज फिर वह तराना बनाएँ

5 comments:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
    --
    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल सोमवार (21-04-2014) को "गल्तियों से आपके पाठक रूठ जायेंगे" (चर्चा मंच-1589) पर भी होगी!
    --
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

    ReplyDelete
  2. सुन्दर प्रस्तुति।

    Recent Post शब्दों की मुस्कराहट पर ….अब आंगन में फुदकती गौरैया नजर नहीं आती

    ReplyDelete
  3. लाजवाब ....बहुत सुन्दर ...!

    ReplyDelete
  4. बहुत सुन्दर प्रस्तुति श्री गाफ़िल साब

    ReplyDelete