Sunday, July 19, 2015

ख़ुदा ही कुछ करे के मार्फ़त अंजाम हो जाए

हमारी क़ब्र पर आना जो तेरा आम हो जाए।
हमारी रूहे फ़ानी को ज़रा आराम हो जाए।।

हमारा क़त्ल करके इस क़दर तू मुस्कुराए है,
किसी शातिर का जैसे कोई भारी काम हो जाए।

हमारा जिस्म ज़ेरे ख़ाक है पर रूह ज़िन्दा है,
न ऐसा काम कर के वह भी अब बदनाम हो जाए।

अगर वादा खि़लाफ़ी ही मुहब्बत की रवायत है,
तो चाहूँ के हमारा इश्क़ अब नाकाम हो जाए।

हुई क्या बात के अहले ज़माना हो गया दुश्मन,
किया है इश्क़ ही तो और न इल्ज़ाम हो जाए।

बड़ा ही पुरख़तर है काम ग़ाफ़िल इश्क़बाजी, अब
ख़ुदा ही कुछ करे के मार्फ़त अंजाम हो जाए।।

3 comments:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल मंगलवार (21-07-2015) को "कौवा मोती खायेगा...?" (चर्चा अंक-2043) पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. वाह जनाब ....बहुत ही खूब !!!

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