Thursday, February 16, 2017

मैं रहूँ जैसे भी लेकिन शाद यह कुनबा रहे

है ज़ुरूरी वाक़ई तो फ़ासिलः ऐसा रहे
तू कहीं भी हो तसव्वुर में मगर आता रहे

कोई बेहतर कर भी क्या सकता है बस इसके सिवा
दिल भले रोता रहे फिर भी वो मुस्काता रहे

तू भले माने न लेकिन जीते जी मर जाएगा
बोझ तेरी बेरुख़ी का कोई गर ढोता रहे

या ख़ुदा मेरी दुआ में इतना तो कर दे असर
मैं रहूँ जैसे भी लेकिन शाद यह कुनबा रहे

इल्म इतना भी नहीं ग़ाफ़िल शराबे चश्म को
जो नहीं लाइक़ हैं उसके स्वाद वे ही पा रहे

-‘ग़ाफ़िल’

1 comment:

  1. आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (19-02-2017) को
    "उजड़े चमन को सजा लीजिए" (चर्चा अंक-2595)
    पर भी होगी।
    --
    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
    --
    चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
    जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक

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