Tuesday, October 31, 2017

लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

वह सिलसिला-ए-मात जो जारी है आज भी
उसमें सुना है मेरी ही बारी है आज भी

शर्मा के मेरे पहलू से उठ जाना बार बार
तेरी अदा ये वैसी ही प्यारी है आज भी

कौंधी थी वर्क़ सी जो कसक दरमियाने दिल
यारो सुरूर उसका ही तारी है आज भी

इज़्हारे इश्क़ की ये मेरी शोख़ तमन्ना
तेरे ग़ुरूरे ख़ाम से हारी है आज भी

गोया के हाले दौर में जाता रहा चलन
तलवार मेरी फिर भी दुधारी है आज भी

इतिहास हो चुका है गो भूगोल जिस्म का
लेकिन शराबे लब की ख़ुमारी है आज भी

ग़ाफ़िल वो मुस्कुरा के तेरा टालना मुझे
हर इक अदा-ए-शोख़ पे भारी है आज भी

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, October 25, 2017

ज़रा सा मुस्कुरा देते मेरा इन्आम हो जाता

तुम्हारा दर मेरे आना जो सुब्हो शाम हो जाता
क़सम अल्लाह की यह एक उम्दा काम हो जाता

नशीला हूँ सरापा गो मगर इक बार मुझको तुम
अगर नज़रों छू देते छलकता जाम हो जाता

नहीं उल्फ़त अदावत ही सही तुम कुछ तो कर लेते
तुम्हारे नाम से जुड़कर मेरा भी नाम हो जाता

मेरे पास आ गए होते अगर तुम मिस्ले चारागर
हरारत थी मुहब्बत की ज़रा आराम हो जाता

निगाहे लुत्फ़ मेरे सिम्त होता और तुम ग़ाफ़िल
ज़रा सा मुस्कुरा देते मेरा इन्आम हो जाता

-‘ग़ाफ़िल’

Monday, October 23, 2017

शाइरी इस तरह भी होती है

बन्द आँखों में रोशनी सी है
जैसे जी में ही शम्अ जलती है

उसने पूछा के ख़्वाब कैसा था
कह न पाया हसीं तू जितनी है

अपने घर में ही मिस्ले मिह्माँ हूँ मैं
लब तो हँसते हैं आँख गीली है

इसकी फ़ित्रत में जब है तारीकी
पूछते क्यूँ हो रात कैसी है

और कितना उघार दूँ ख़ुद को
जिस्म पर अब फ़क़त ये बंडी है

एक अर्सा हुआ सताए हुए
किसकी जानिब निग़ाह तेरी है

इश्क़ और पत्थरों का रिश्ता है गर
हुस्न की शब् भी करवटों की है

क़त्ल हो जाए कोई देखे से ही
शाइरी इस तरह भी होती है

कुछ भी कह दे के आए कल ग़ाफ़िल
वर्ना यह वस्ल आख़िरी ही है

-‘ग़ाफ़िल’

Friday, October 13, 2017

कौन है वह क़िस्मतवर

गर नहीं मैं हूँ तो फिर कौन है वह क़िस्मतवर
रात जिसके ही तसव्वुर में गुज़रती है तेरी

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 10, 2017

तीरे नज़र

सोचा था शब कटेगी सुक़ूँ से के उसने फिर
तीरे नज़र जिगर के मेरे पार कर दिया

-‘ग़ाफ़िल’

Wednesday, October 04, 2017

कोर्ट से जबरन जमानत हो गयी

चाहता मैं रह गया ज़िंदाने ज़ुल्फ़
कोर्ट से जबरन जमानत मिल गयी

-‘ग़ाफ़िल’

Tuesday, October 03, 2017

तो वह भाँग अपनी भी खाई हुई है

न धेले की यारो कमाई हुई है
जो दौलत है अपनी वो पाई हुई है

किसी तर्ह भी अब न होगा बराबर
मेरे जेह्न की यूँ खुदाई हुई है

हक़ीक़त यही है के जब हम मिले हैं
ज़ुदाई तलक बस लड़ाई हुई है

मेरा शौक जलने का है इसलिए भी
के आतिश तेरी ही लगाई हुई है

कहाँ तुझसे पाना निज़ात अब है मुम्क़िन
तू नागन जो इक चोट खाई हुई है

गई मर्ज़ तब ही मरीज़ उठ गया जब
कुछ इस ही सिफ़त की दवाई हुई है

अगर तुझको ग़ाफ़िल गुरूर इश्‍क़ का है
तो वह भाँग अपनी भी खाई हुई है

-‘ग़ाफ़िल’