Saturday, September 05, 2015

उसे है कारवाँ मिलता भले तन्‌हा निकलता है

यूँ राहे ज़ीस्त में इंसान गर सच्चा निकलता है
उसे है कारवाँ मिलता भले तन्‌हा निकलता है

मेरी पुरख़ार राहें एक दिन फूलों भरी होंगी
पता है ख़ार में भी किस तरह गुंचा निकलता है

किया क्या ग़ौर इस पर भी किसी ने क्यूँ है ऐसा के
निकलता चाँद मश्‌रिक़ से है जब पूरा निकलता है

जहाँ में इश्क़ का दीया है जब भी बुझ रहा होता
किसी मीरा दीवानी का वो गोपाला निकलता है

बहुत था दर्द दिल में साथ जब तू थी नहीं मेरे
तेरे आने से देखूं दर्द अब कितना निकलता है

तुझे क्यूँ फ़िक़्र है तीरे नज़र का वार जिस पर की
वही ग़ाफ़िल, जो तेरे दर से मुस्काता निकलता है

-‘ग़ाफ़िल’

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