Friday, December 25, 2015

न हो बर्दाश्त गर तो यह गुनाहे यार लिख देना

भले ही जीत अपनी और मेरी हार लिख देना
मगर सहरा-ए-दिल पे अब्र के आसार लिख देना

सरे महफ़िल तुम्हें अपना कहा तस्लीम करता हूँ
न हो बर्दाश्त गर तो यह गुनाहे यार लिख देना

ज़मीं से आस्माँ तक इश्क़ की आवाज़ तिर जाए
भले ही चंद पर इस वज़्न के अश्‌आर लिख देना

उफ़नती सी नदी भी बेहिचक मैं तैर जाता हूँ
मेरी किस्मत में रब मत क़श्ती-ओ-पतवार लिख देना

कभी फ़ुर्सत मिले ग़ैरों से तो मेरे भी आरिज़ पे
भले बेमन ही ग़ाफ़िल जी लबों से प्यार लिख देना

आरिज़=गाल

-‘ग़ाफ़िल’

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