Tuesday, September 13, 2016

हुस्न कोई गर न टकराता कभी

तू बता मेरी तरफ देखा कभी
और देखा तो बुलाया क्या कभी

चाहेगा जब पास अपने पाएगा
क्या मुझे है ढूढना पड़ता कभी

तू नहीं करता परीशाँ गर मुझे
तो कहाँ होता कोई अपना कभी

ख़ाक बढ़ता प्यार का यह सिलसिला
हुस्न कोई गर न टकराता कभी

तिश्नगी, सैलाब मैंने एक साथ
आँख में अपने ही देखा था कभी

काश! जानिब से तेरी आती सदा
यूँ के ग़ाफ़िल अब यहाँ आजा कभी

-‘ग़ाफ़िल’

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